तापस प्रकरण

तापस प्रकरण
तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा॥
कबि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥4
भावार्थ:-उसी अवसर पर वहाँ एक तपस्वी आयाजो तेज का पुंजछोटी अवस्था का और सुंदर था। उसकी गति कवि नहीं जानते। वह वैरागी के वेष में था और मनवचन तथा कर्म से श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी था॥4
दोहा :
सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥110
भावार्थ:-अपने इष्टदेव को पहचानकर उसके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया। वह दण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ाउसकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥110
चौपाई :
राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1
भावार्थ:-श्री रामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया। मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो। सब कोई कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ दोनों शरीर धारण करके मिल रहे हैं॥1
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥2
भावार्थ:-फिर वह लक्ष्मणजी के चरणों लगा। उन्होंने प्रेम से उमंगकर उसको उठा लिया। फिर उसने सीताजी की चरण धूलि को अपने सिर पर धारण किया। माता सीताजी ने भी उसको अपना बच्चा जानकर आशीर्वाद दिया॥2
कीन्ह निषाद दंडवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥
पिअत नयन पुट रूपु पियुषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥3
भावार्थ:-फिर निषादराज ने उसको दण्डवत की। श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी जानकर वह उस (निषाद) से आनंदित होकर मिला। वह तपस्वी अपने नेत्र रूपी दोनों से श्री रामजी की सौंदर्य सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुंदर भोजन पाकर आनंदित होता है॥3
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥4

भावार्थ:-हे सखी! कहो तोवे माता-पिता कैसे हैंजिन्होंने ऐसे बालकों को वन में भेज दिया है। श्री रामजीलक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर सब स्त्री-पुरुष स्नेह से व्याकुल हो जाते हैं॥4

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