रुद्राष्टक

रुद्राष्टक
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥107 ख॥ 
भावार्थ:-प्रेम सहित दण्डवत्‌ करके वे ब्राह्मण श्री शिवजी के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गति (दण्ड) का विचार कर गदगद वाणी से विनती करने लगे-॥107 (ख)॥
छंद :
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥1
भावार्थ:-हे मोक्षस्वरूपविभुव्यापकब्रह्म और वेदस्वरूपईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात्‌ मायादिरहित), (मायिक) गुणों से रहितभेदरहितइच्छारहितचेतन आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर (अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले) आपको मैं भजता हूँ॥1
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥2
भावार्थ:-निराकारओंकार के मूलतुरीय (तीनों गुणों से अतीत)वाणीज्ञान और इन्द्रियों से परेकैलासपतिविकरालमहाकाल के भी कालकृपालुगुणों के धामसंसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ॥2
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥3
भावार्थ:-जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैंजिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा हैजिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैंजिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित है॥3
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥4
भावार्थ:-जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैंसुंदर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैंजो प्रसन्नमुखनीलकण्ठ और दयालु हैंसिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुण्डमाला पहने हैंउन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥4
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥5 
भावार्थ:-प्रचण्ड (रुद्ररूप)श्रेष्ठतेजस्वीपरमेश्वरअखण्डअजन्मेकरोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वालेतीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वालेहाथ में त्रिशूल धारण किएभाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥5
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6
भावार्थ:-कलाओं से परेकल्याणस्वरूपकल्प का अंत (प्रलय) करने वालेसज्जनों को सदा आनंद देने वालेत्रिपुर के शत्रुसच्चिदानंदघनमोह को हरने वालेमन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रुहे प्रभो! प्रसन्न होइएप्रसन्न होइए॥6
न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7
भावार्थ:-जब तक पार्वती के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजतेतब तक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले हे प्रभो! प्रसन्न होइए॥7
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥8
भावार्थ:-मैं न तो योग जानता हूँन जप और न पूजा ही। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म (मृत्यु) के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की दुःख से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥8
श्लोक :
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥9
भावार्थ:-भगवान्‌ रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैंउन पर भगवान्‌ शम्भु प्रसन्न होते हैं॥9

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