श्री राम की सुग्रीव पर नाराजी, लक्ष्मणजी का कोप
चौपाई :
* बरषा गत निर्मल
रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥1॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥1॥
भावार्थ : वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु हे तात!
सीता की कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर में
जानकी को ले आऊँ॥1॥
* कतहुँ रहउ जौं
जीवति होई। तात जतन करि आनउँ सोई॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी॥2॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी॥2॥
भावार्थ : कहीं भी रहे, यदि जीती होगी तो हे तात! यत्न करके मैं उसे अवश्य लाऊँगा।
राज्य, खजाना, नगर और स्त्री पा
गया, इसलिए सुग्रीव ने भी मेरी सुध भुला दी॥2॥
* जेहिं सायक मारा
मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली॥
जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥3॥
जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥3॥
भावार्थ : जिस बाण से मैंने
बालि को मारा था, उसी बाण से कल उस मूढ़ को मारूँ! (शिवजी कहते हैं-)
हे उमा! जिनकी कृपा से मद और मोह छूट जाते हैं उनको कहीं स्वप्न में भी क्रोध हो
सकता है? (यह तो लीला मात्र है)॥3॥
* जानहिं यह चरित्र
मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाई गहे कर बाना॥4॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाई गहे कर बाना॥4॥
भावार्थ : ज्ञानी मुनि
जिन्होंने श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रीति मान ली है (जोड़ ली है), वे ही इस चरित्र (लीला रहस्य) को जानते हैं। लक्ष्मणजी ने
जब प्रभु को क्रोधयुक्त जाना, तब उन्होंने धनुष
चढ़ाकर बाण हाथ में ले लिए॥4॥
दोहा :
* तब अनुजहि
समुझावा रघुपति करुना सींव।
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव॥18॥
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव॥18॥
भावार्थ : तब दया की सीमा
श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को समझाया कि हे तात! सखा सुग्रीव को केवल भय
दिखलाकर ले आओ ॥18॥
चौपाई :
* इहाँ पवनसुत
हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥
भावार्थ : यहाँ (किष्किन्धा
नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के
कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों
प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया॥1॥
* सुनि सुग्रीवँ
परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥
अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥
अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥
भावार्थ : हनुमान्जी के
वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा-) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर
लिया। अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानरों के यूथ रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो॥2॥
* कहहु पाख महुँ आव
न जोई। मोरें कर ता कर बध होई॥
तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता॥3॥
तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता॥3॥
भावार्थ : और कहला दो कि एक
पखवाड़े में (पंद्रह दिनों में) जो न आ जाएगा, उसका मेरे हाथों
वध होगा। तब हनुमान्जी ने दूतों को बुलाया और सबका बहुत सम्मान करके-॥3॥
* भय अरु प्रीति
नीति देखराई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए॥4॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए॥4॥
भावार्थ : सबको भय, प्रीति और नीति दिखलाई। सब बंदर चरणों में सिर नवाकर चले।
इसी समय लक्ष्मणजी नगर में आए। उनका क्रोध देखकर बंदर जहाँ-तहाँ भागे॥4॥
दोहा :
* धनुष चढ़ाइ कहा
तब जारि करउँ पुर छार।
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार॥19॥
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार॥19॥
भावार्थ : तदनन्तर लक्ष्मणजी
ने धनुष चढ़ाकर कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूँगा। तब नगरभर को व्याकुल देखकर
बालिपुत्र अंगदजी उनके पास आए॥19॥
चौपाई :
* चर नाइ सिरु
बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही॥
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥1॥
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥1॥
भावार्थ : तदनन्तर लक्ष्मणजी
ने धनुष चढ़ाकर कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूँगा। तब नगरभर को व्याकुल देखकर
बालिपुत्र अंगदजी उनके पास आए॥19॥
* सुनु हनुमंत संग
लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥2॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥2॥
भावार्थ : हे हनुमान् सुनो, तुम तारा को साथ ले जाकर विनती करके राजकुमार को समझाओ । हनुमान्जी ने तारा सहित जाकर लक्ष्मणजी के चरणों की
वंदना की और प्रभु के सुंदर यश का बखान किया॥2॥
* करि बिनती मंदिर
लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए॥
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥3॥
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥3॥
भावार्थ : वे विनती करके
उन्हें महल में ले आए तथा चरणों को धोकर उन्हें पलँग पर बैठाया। तब वानरराज
सुग्रीव ने उनके चरणों में सिर नवाया और लक्ष्मणजी ने हाथ पकड़कर उनको गले से लगा
लिया॥3॥
* नाथ विषय सम मद
कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं।
सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा॥4॥
सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा॥4॥
भावार्थ : (सुग्रीव ने कहा-) हे नाथ! विषय के समान और कोई मद नहीं है।
यह मुनियों के मन में भी क्षणमात्र में मोह उत्पन्न कर देता है । सुग्रीव के विनययुक्त वचन सुनकर लक्ष्मणजी ने सुख पाया और उनको बहुत
प्रकार से समझाया॥4॥
* पवन तनय सब कथा
सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई॥5॥
भावार्थ : भावार्थ:-तब
पवनसुत हनुमान्जी ने जिस प्रकार सब दिशाओं में दूतों के समूह गए थे वह सब हाल
सुनाया॥5॥
Comments
Post a Comment