रावण का कुम्भकर्ण को जगाना, कुम्भकर्ण का रावण को उपदेश और विभीषण-कुम्भकर्ण संवाद

रावण का कुम्भकर्ण को जगानाकुम्भकर्ण का रावण को उपदेश और विभीषण-कुम्भकर्ण संवाद
चौपाई :
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥3
भावार्थ:- यह समाचार जब रावण ने सुनातब उसने अत्यंत विषाद से बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसने उसको जगाया॥3
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥4
भावार्थ:- कुंभकर्ण जगा (उठ बैठा) वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा- हे भाई! कहो तोतुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?4
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे॥5
भावार्थ:-उस अभिमानी (रावण) ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था सारी कथा कही। (फिर कहा-) हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला॥5
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥6
भावार्थ:-दुर्मुखदेवशत्रु (देवान्तक)मनुष्य भक्षक (नरान्तक)भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए॥6
दोहा :
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62
भावार्थ:- तब रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?62
चौपाई :
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1
भावार्थ:- हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगायाहे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा॥1
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥2
भावार्थ:- हे रावण! जिनके हनुमान्‌ सरीखे सेवक हैंवे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैंहाय भाई! तूने बुरा कियाजो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥2
कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥3
भावार्थ:- हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध कियाजिसके शिवब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा थावह मैं तुझसे कहतापर अब तो समय जाता रहा॥3
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥4
भावार्थ:-हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीरकमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ॥4
दोहा :
राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥63
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया। फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए॥63
चौपाई :
महिषखाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥1
भावार्थ:-भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली॥1
देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥2
भावार्थ:-उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे॥2
तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥3
भावार्थ:-(विभीषण ने कहा-) हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया। दीन देखकर प्रभु के मन को मैं (बहुत) प्रिय लगा॥3
सुनु भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥4
भावार्थ:-(कुंभकर्ण ने कहा-) हे पुत्र! सुनरावण तो काल के वश हो गया है । वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता हैहे विभीषण! तू धन्य हैधन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया॥4
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥5
भावार्थ:-हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दियाजो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा॥5
दोहा :
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥64
भावार्थ:-मनवचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना। हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँमुझे अपना-पराया नहीं सूझताइसलिए अब तुम जा

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