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किष्किंधाकाण्डकी सुंदर चौपाइयाँ

* सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥ सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥ 5 ॥ भावार्थ :   मूर्ख सेवक , कंजूस राजा , कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥ 5 ॥ * अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥ इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥ 4 ॥ भावार्थ :   ( श्री रामजी ने कहा-) हे मूर्ख! सुन , छोटे भाई की स्त्री , बहिन , पुत्र की स्त्री और कन्या- ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है , उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता॥ 4 ॥ *

Aranyakand ki sundar chopaiya

*मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥ अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥3॥ भावार्थ :  हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही (सुख) देने वाले हैं, परन्तु हे जानकी! पति तो (मोक्ष रूप) असीम (सुख) देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती॥3॥ * धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥ बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥ भावार्थ :  धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥ *ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥ एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥ भावार्थ :  ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुःख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥5॥ *जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान संत सब कहहीं॥ उत्तम के अस बस मन

Ramstuti

*नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥ भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥ भावार्थ :  हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥ *निकाम श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥ प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥ भावार्थ :  आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥ *प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥ निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥ भावार्थ :  हे प्रभो! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,॥3॥ *दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं॥ मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥4॥ भावार्थ :  सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥4॥ *मनोज वैरि वंदितं

अयोध्याकांड की सुंदर चौपाइयाँ

* सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥ निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥ 4 ॥ भावार्थ:- कवि सत्य ही कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड़ में न आने योग्य , अथाह और भेदभरा होता है। अपनी परछाहीं भले ही पकड़ जाए , पर भाई! स्त्रियों की गति (चाल) नहीं जानी जाती॥ 4 ॥ * रागु रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥ सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥ 3 ॥ भावार्थ:- राग , रोष , ईर्षा , मद और मोह- इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन , वचन और कर्म से श्री सीतारामजी की सेवा करना॥ 3 ॥ * रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही॥ सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥ 4 ॥ भावार्थ:- और पति श्री रामचन्द्रजी हैं , वही जानकीजी आज जमीन पर सो रही हैं। विधाता किसको प्रतिकूल नहीं होता! सीताजी और श्री रामचन्द्रजी क्या वन के योग्य हैं ? लोग सच कहते हैं कि कर्म (भाग्य) ही प्रधान है॥ 4 ॥ दोहा : * भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल। करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं