पुत्रोत्पति, अयोध्याजी की रमणीयता, सनकादिका आगमन और संवाद
दोहा :
* ग्यान गिरा गोतीत
अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार॥25॥
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार॥25॥
भावार्थ:-जो (बौद्धिक) ज्ञान, वाणी और
इंद्रियों से परे और अजन्मा है तथा माया, मन और गुणों के
परे है, वही सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रेष्ठ नरलीला करते हैं॥25॥
चौपाई :
* प्रातकाल सरऊ करि
मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥1॥
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥1॥
भावार्थ:-प्रातःकाल सरयूजी में स्नान करके ब्राह्मणों और
सज्जनों के साथ सभा में बैठते हैं। वशिष्ठजी वेद और पुराणों की कथाएँ वर्णन करते
हैं और श्री रामजी सुनते हैं, यद्यपि वे सब
जानते हैं॥1॥
* अनुजन्ह संजुत
भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं॥
भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई॥2॥
भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई॥2॥
भावार्थ:-वे भाइयों को साथ लेकर भोजन करते हैं। उन्हें देखकर
सभी माताएँ आनंद से भर जाती हैं। भरतजी और शत्रुघ्नजी दोनों भाई हनुमान्जी सहित
उपवनों में जाकर,॥2॥
* बूझहिं बैठि राम
गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं॥3॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं॥3॥
भावार्थ:-वहाँ बैठकर श्री रामजी के गुणों की कथाएँ पूछते हैं और
हनुमान्जी अपनी सुंदर बुद्धि से उन गुणों में गोता लगाकर उनका वर्णन करते हैं।
श्री रामचंद्रजी के निर्मल गुणों को सुनकर दोनों भाई अत्यंत सुख पाते हैं और विनय
करके बार-बार कहलवाते हैं॥3॥
* सब कें गृह गृह
होहिं पुराना। राम चरित पावन बिधि नाना॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं॥4॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं॥4॥
भावार्थ:-सबके यहाँ घर-घर में पुराणों और अनेक प्रकार के
पवित्र रामचरित्रों की कथा होती है। पुरुष और स्त्री सभी श्री रामचंद्रजी का
गुणगान करते हैं और इस आनंद में दिन-रात का बीतना भी नहीं जान पाते॥4॥
दोहा :
* अवधपुरी बासिन्ह
कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज॥26॥
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज॥26॥
भावार्थ:-जहाँ भगवान् श्री रामचंद्रजी स्वयं राजा होकर
विराजमान हैं, उस अवधपुरी के निवासियों के सुख-संपत्ति के समुदाय का
वर्णन हजारों शेषजी भी नहीं कर सकते॥26॥
चौपाई :
*नारदादि सनकादि
मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं॥1॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं॥1॥
भावार्थ:-नारद आदि और सनक आदि मुनीश्वर सब कोसलराज श्री रामजी
के दर्शन के लिए प्रतिदिन अयोध्या आते हैं और उस (दिव्य) नगर को देखकर वैराग्य
भुला देते हैं॥1॥
* जातरूप मनि रचित
अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥2॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥2॥
भावार्थ:-(दिव्य) स्वर्ण और
रत्नों से बनी हुई अटारियाँ हैं। उनमें (मणि-रत्नों की) अनेक रंगों की सुंदर ढली
हुई फर्शें हैं। नगर के चारों ओर अत्यंत सुंदर परकोटा बना है, जिस पर सुंदर रंग-बिरंगे कँगूरे बने हैं॥2॥
* नव ग्रह निकर
अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई॥
लमहि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा॥3॥
लमहि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा॥3॥
भावार्थ:-मानो नवग्रहों ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को
आकर घेर लिया हो। पृथ्वी (सड़कों) पर अनेकों रंगों के (दिव्य) काँचों (रत्नों) की
गच बनाई (ढाली) गई है, जिसे देखकर श्रेष्ठ मुनियों के भी मन नाच उठते हैं॥3॥
* धवल धाम ऊपर नभ
चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत॥
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं॥4॥
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं॥4॥
भावार्थ:-उज्ज्वल महल ऊपर आकाश को चूम (छू) रहे हैं। महलों पर
के कलश (अपने दिव्य प्रकाश से) मानो सूर्य, चंद्रमा के
प्रकाश की भी निंदा (तिरस्कार) करते हैं। (महलों में) बहुत सी मणियों से रचे हुए
झरोखे सुशोभित हैं और घर-घर में मणियों के दीपक शोभा पा रहे हैं॥4॥
छंद :
* मनि दीप राजहिं
भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
भावार्थ:-घरों में मणियों के दीपक शोभा दे रहे हैं। मूँगों की
बनी हुई देहलियाँ चमक रही हैं। मणियों (रत्नों) के खम्भे हैं। मरकतमणियों (पन्नों)
से जड़ी हुई सोने की दीवारें ऐसी सुंदर हैं मानो ब्रह्मा ने खास तौर से बनाई हों।
महल सुंदर, मनोहर और विशाल हैं। उनमें सुंदर स्फटिक के आँगन बने
हैं। प्रत्येक द्वार पर बहुत से खरादे हुए हीरों से जड़े हुए सोने के किंवाड़ हैं॥
दोहा :
* चारु चित्रसाला
गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ॥27॥
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ॥27॥
भावार्थ:-घर-घर में सुंदर चित्रशालाएँ हैं, जिनमें श्री रामचंद्रजी के चरित्र बड़ी सुंदरता के साथ
सँवारकर अंकित किए हुए हैं। जिन्हें मुनि देखते हैं, तो वे उनके भी
चित्त को चुरा लेते हैं॥27॥
चौपाई :
* सुमन बाटिका
सबहिं लगाईं। बिबिध भाँति करि जतन बनाईं॥
लता ललित बहु जाति सुहाईं। फूलहिं सदा बसंत कि नाईं॥1॥
लता ललित बहु जाति सुहाईं। फूलहिं सदा बसंत कि नाईं॥1॥
भावार्थ:-सभी लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की पुष्पों की
वाटिकाएँ यत्न करके लगा रखी हैं, जिनमें बहुत
जातियों की सुंदर और ललित लताएँ सदा वसंत की तरह फूलती रहती हैं॥1॥
*गुंजत मधुकर मुखर
मनोहर। मारुत त्रिबिधि सदा बह सुंदर।
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए॥2॥
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए॥2॥
भावार्थ:-भौंरे मनोहर स्वर से गुंजार करते हैं। सदा तीनों
प्रकार की सुंदर वायु बहती रहती है। बालकों ने बहुत से पक्षी पाल रखे हैं, जो मधुर बोली बोलते हैं और उड़ने में सुंदर लगते हैं॥2॥
* मोर हंस सारस
पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत॥
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं॥3॥
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं॥3॥
भावार्थ:-मोर, हंस, सारस और कबूतर घरों के ऊपर बड़ी ही शोभा पाते हैं। वे पक्षी जहाँ-तहाँ अपनी परछाईं देखकर बहुत प्रकार से मधुर बोली बोलते और नृत्य करते हैं॥3॥
*सुक सारिका
पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक॥
राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रुचिर बजारू॥4॥
राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रुचिर बजारू॥4॥
भावार्थ:-बालक तोता-मैना को पढ़ाते हैं कि कहो- 'राम' 'रघुपति' 'जनपालक'। राजद्वार सब प्रकार से सुंदर है। गलियाँ, चौराहे और बाजार सभी सुंदर हैं॥4॥
छंद :
* बाजार रुचिर न
बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरि सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरि सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥
भावार्थ:-सुंदर बाजार है, जो वर्णन करते
नहीं बनता, वहाँ वस्तुएँ बिना ही मूल्य मिलती हैं। जहाँ स्वयं
लक्ष्मीपति राजा हों, वहाँ की संपत्ति का वर्णन कैसे किया जाए? बजाज (कपड़े का व्यापार करने वाले), सराफ (रुपए-पैसे का लेन-देन करने वाले) आदि वणिक्
(व्यापारी) बैठे हुए ऐसे जान प़ड़ते हैं मानो अनेक कुबेर हों, स्त्री, पुरुष बच्चे और
बूढ़े जो भी हैं, सभी सुखी, सदाचारी और सुंदर
हैं॥
दोहा :
* उत्तर दिसि सरजू
बह निर्मल जल गंभीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर॥28॥
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर॥28॥
भावार्थ:-नगर के उत्तर दिशा में सरयूजी बह रही हैं, जिनका जल निर्मल और गहरा है। मनोहर घाट बँधे हुए हैं, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है॥28॥
चौपाई :
* दूरि फराक रुचिर
सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा॥
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥1॥
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥1॥
भावार्थ:-अलग कुछ दूरी पर वह सुंदर घाट है, जहाँ घोड़ों और हाथियों के ठट्ट के ठट्ट जल पिया करते हैं।
पानी भरने के लिए बहुत से (जनाने) घाट हैं, जो बड़े ही मनोहर
हैं। वहाँ पुरुष स्नान नहीं करते॥1॥
* राजघाट सब बिधि
सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर॥
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर॥2॥
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर॥2॥
भावार्थ:-राजघाट सब प्रकार से सुंदर और श्रेष्ठ है, जहाँ चारों वर्णों के पुरुष स्नान करते हैं। सरयूजी के
किनारे-किनारे देवताओं के मंदिर हैं, जिनके चारों ओर
सुंदर उपवन (बगीचे) हैं॥2॥
* कहुँ कहुँ सरिता
तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी॥
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई॥3॥
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई॥3॥
भावार्थ:-नदी के किनारे कहीं-कहीं विरक्त और ज्ञानपरायण मुनि
और संन्यासी निवास करते हैं। सरयूजी के किनारे-किनारे सुंदर तुलसीजी के झुंड के
झुंड बहुत से पेड़ मुनियों ने लगा रखे हैं॥3॥
* पुर सोभा कछु
बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा॥4॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा॥4॥
भावार्थ:-नगर की शोभा तो कुछ कही नहीं जाती। नगर के बाहर भी
परम सुंदरता है। श्री अयोध्यापुरी के दर्शन करते ही संपूर्ण पाप भाग जाते हैं।
(वहाँ) वन, उपवन, बावलिया और तालाब
सुशोभित हैं॥4॥
छंद :
* बापीं तड़ाग अनूप
कूप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥
भावार्थ:-अनुपम बावलियाँ, तालाब और मनोहर
तथा विशाल कुएँ शोभा दे रहे हैं, जिनकी सुंदर
(रत्नों की) सीढ़ियाँ और निर्मल जल देखकर देवता और मुनि तक मोहित हो जाते हैं।
(तालाबों में) अनेक रंगों के कमल खिल रहे हैं, अनेकों पक्षी कूज
रहे हैं और भौंरे गुंजार कर रहे हैं। (परम) रमणीय बगीचे कोयल आदि पक्षियों की
(सुंदर बोली से) मानो राह चलने वालों को बुला रहे हैं।
दोहा :
* रमानाथ जहँ राजा
सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ॥29॥
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ॥29॥
भावार्थ:-स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन किया जा सकता है? अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-संपत्तियाँ अयोध्या
में छा रही हैं॥29॥
चौपाई :
* जहँ तहँ नर
रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥1॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥1॥
भावार्थ:-लोग जहाँ-तहाँ श्री रघुनाथजी के गुण गाते हैं और
बैठकर एक-दूसरे को यही सीख देते हैं कि शरणागत का पालन करने वाले श्री रामजी को
भजो, शोभा, शील, रूप और गुणों के धाम श्री रघुनाथजी को भजो॥1॥
* जलज बिलोचन
स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि॥2॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि॥2॥
भावार्थ:-कमलनयन और साँवले शरीर वाले को भजो। पलक जिस प्रकार
नेत्रों की रक्षा करती हैं उसी प्रकार अपने सेवकों की रक्षा करने वाले को भजो।
सुंदर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले को भजो। संत रूपी कमलवन
के (खिलाने के) सूर्य रूप रणधीर श्री रामजी को भजो॥2॥
* काल कराल ब्याल
खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥3॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥3॥
भावार्थ:-कालरूपी भयानक सर्प के भक्षण करने वाले श्री राम रूप
गरुड़जी को भजो। निष्कामभाव से प्रणाम करते ही ममता का नाश कर देने वाले श्री
रामजी को भजो। लोभ-मोह रूपी हरिनों के समूह के नाश करने वाले श्री राम किरात को
भजो। कामदेव रूपी हाथी के लिए सिंह रूप तथा सेवकों को सुख देने वाले श्री राम को
भजो॥3॥
* संसय सोक निबिड़
तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि॥4॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि॥4॥
भावार्थ:-संशय और शोक रूपी घने अंधकार का नाश करने वाले श्री
राम रूप सूर्य को भजो। राक्षस रूपी घने वन को जलाने वाले श्री राम रूप अग्नि को
भजो। जन्म-मृत्यु के भय को नाश करने वाले श्री जानकी समेत श्री रघुवीर को क्यों
नहीं भजते?॥4॥
*बहु बासना मसक
हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि॥
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥5॥
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥5॥
भावार्थ:-बहुत सी वासनाओं रूपी मच्छरों को नाश करने वाले श्री
राम रूप हिमराशि (बर्फ के ढेर) को भजो। नित्य एकरस, अजन्मा और
अविनाशी श्री रघुनाथजी को भजो। मुनियों को आनंद देने वाले, पृथ्वी का भार उतारने वाले और तुलसीदास के उदार (दयालु)
स्वामी श्री रामजी को भजो॥5॥
दोहा :
* एहि बिधि नगर
नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान॥30॥
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान॥30॥
भावार्थ:-इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुष श्री रामजी का गुण-गान
करते हैं और कृपानिधान श्री रामजी सदा सब पर अत्यंत प्रसन्न रहते हैं॥30॥
चौपाई :
* जब ते राम प्रताप
खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥1॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥1॥
भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी
कहते हैं-) हे पक्षीराज गरुड़जी! जब से रामप्रताप रूपी अत्यंत प्रचण्ड सूर्य उदित
हुआ, तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे
बहुतों को सुख और बहुतों के मन में शोक हुआ॥1॥
* जिन्हहि सोक ते
कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥2॥ `
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥2॥ `
भावार्थ:-जिन-जिन को शोक हुआ, उन्हें मैं
बखानकर कहता हूँ पहले तो अविद्या रूपी रात्रि नष्ट हो
गई। पाप रूपी उल्लू जहाँ-तहाँ छिप गए और काम-क्रोध रूपी कुमुद मुँद गए॥2॥
* बिबिध कर्म गुन
काल सुभाउ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥3॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥3॥
भावार्थ:-भाँति-भाँति के (बंधनकारक) कर्म, गुण, काल और स्वभाव- ये चकोर हैं, जो (रामप्रताप रूपी सूर्य के प्रकाश में) कभी सुख नहीं
पाते। मत्सर (डाह), मान, मोह और मद रूपी
जो चोर हैं, उनका हुनर (कला) भी किसी ओर नहीं चल पाता॥3॥
* धरम तड़ाग ग्यान
बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना॥
सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका॥4॥
सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका॥4॥
भावार्थ:-धर्म रूपी तालाब में ज्ञान, विज्ञान- ये अनेकों प्रकार के कमल खिल उठे। सुख, संतोष, वैराग्य और
विवेक- ये अनेकों चकवे शोकरहित हो गए॥4॥
दोहा :
* यह प्रताप रबि
जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥31॥
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥31॥
भावार्थ:-यह श्री रामप्रताप रूपी सूर्य जिसके हृदय में जब
प्रकाश करता है, तब जिनका वर्णन पीछे से किया गया है, वे बढ़ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया गया है, वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि) नाश
को प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं॥31॥
चौपाई :
* भ्रातन्ह सहित
रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा॥
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥1॥
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥1॥
भावार्थ:-एक बार भाइयों सहित श्री रामचंद्रजी परम प्रिय
हनुमान्जी को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गए। वहाँ के सब वृक्ष फूले हुए और नए
पत्तों से युक्त थे॥1॥
* जानि समय सनकादिक
आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए॥
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥2॥
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥2॥
भावार्थ:-सुअवसर जानकर सनकादि मुनि आए, जो तेज के पुंज, सुंदर गुण और शील
से युक्त तथा सदा ब्रह्मानंद में लवलीन रहते हैं। देखने में तो वे बालक लगते हैं, परंतु हैं बहुत समय के॥2॥
*रूप धरें जनु
चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥3॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥3॥
भावार्थ:-मानो चारों वेद ही बालक रूप धारण किए हों। वे मुनि
समदर्शी और भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ
श्री रघुनाथजी की चरित्र कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं॥3॥
* तहाँ रहे सनकादि
भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥4॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥4॥
भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-)
हे भवानी! सनकादि मुनि वहाँ गए थे जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ
श्री अगस्त्यजी रहते थे। श्रेष्ठ मुनि ने श्री रामजी की बहुत सी कथाएँ वर्णन की
थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जैसे अरणि लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है॥4॥
दोहा :
* देखि राम मुनि
आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह॥32॥
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह॥32॥
भावार्थ:-सनकादि मुनियों को आते देखकर श्री रामचंद्रजी ने
हर्षित होकर दंडवत् किया और स्वागत (कुशल) पूछकर प्रभु ने (उनके) बैठने के लिए
अपना पीताम्बर बिछा दिया॥32॥
चौपाई :
* कीन्ह दंडवत
तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई॥
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी॥1॥
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी॥1॥
भावार्थ:-फिर हनुमान्जी सहित तीनों भाइयों ने दंडवत् की, सबको बड़ा सुख हुआ। मुनि श्री रघुनाथजी की अतुलनीय छबि
देखकर उसी में मग्न हो गए। वे मन को रोक न सके॥1॥
* स्यामल गात
सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन॥
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं॥2॥
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं॥2॥
भावार्थ:-वे जन्म-मृत्यु (के चक्र) से छुड़ाने वाले, श्याम शरीर, कमलनयन, सुंदरता के धाम श्री रामजी को टकटकी लगाए देखते ही रह गए, पलक नहीं मारते और प्रभु हाथ जोड़े सिर नवा रहे हैं॥2॥
* तिन्ह कै दसा
देखि रघुबीरा। स्रवत नयन जल पुलक सरीरा॥
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे॥3॥
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे॥3॥
भावार्थ:-उनकी (प्रेम विह्लल) दशा देखकर (उन्हीं की भाँति)
श्री रघुनाथजी के नेत्रों से भी (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो
गया। दतनन्तर प्रभु ने हाथ पकड़कर श्रेष्ठ मुनियों को बैठाया और परम मनोहर वचन
कहे-॥3॥
* आजु धन्य मैं
सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥4॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥4॥
भावार्थ:-हे मुनीश्वरो! सुनिए, आज मैं धन्य हूँ।
आपके दर्शनों ही से (सारे) पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की
प्राप्ति होती है, जिससे बिन ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो
जाता है॥4॥
दोहा :
* संत संग अपबर्ग
कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥33॥
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥33॥
भावार्थ:-संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का
संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी
सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं॥33॥
चौपाई :
* सुनि प्रभु बचन
हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी॥
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥1॥
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥1॥
भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीर से स्तुति करने लगे- हे भगवन्! आपकी जय हो। आप
अंतरहित, विकाररहित, पापरहित, अनेक (सब रूपों में प्रकट), एक (अद्वितीय) और
करुणामय हैं॥1॥
* जय निर्गुन जय जय
गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर॥
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥2॥
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥2॥
भावार्थ:-हे निर्गुण! आपकी जय हो। हे गुण के समुद्र! आपकी जय
हो, जय हो। आप सुख के धाम, (अत्यंत) सुंदर और
अति चतुर हैं। हे लक्ष्मीपति! आपकी जय हो। हे पृथ्वी के धारण करने वाले! आपकी जय
हो। आप उपमारहित, अजन्मे, अनादि और शोभा की
खान हैं॥2॥
* ग्यान निधान अमान
मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद॥
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन॥3॥
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन॥3॥
भावार्थ:-आप ज्ञान के भंडार, (स्वयं) मानरहित
और (दूसरों को) मान देने वाले हैं। वेद और पुराण आपका पावन सुंदर यश गाते हैं। आप
तत्त्व के जानने वाले, की हुई सेवा को मानने वाले और अज्ञान का नाश करने
वाले हैं। हे निरंजन (मायारहित)! आपके अनेकों (अनंत) नाम हैं और कोई नाम नहीं है ॥3॥
* सर्ब सर्बगत सर्ब
उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। हृदि बसि राम काम मद गंजय॥4॥
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। हृदि बसि राम काम मद गंजय॥4॥
भावार्थ:-आप सर्वरूप हैं, सब में व्याप्त
हैं और सबके हृदय रूपी घर में सदा निवास करते हैं, (अतः) आप हमारा
परिपालन कीजिए। (राग-द्वेष, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि)
द्वंद्व, विपत्ति और जन्म-मत्यु के जाल को काट दीजिए। हे
रामजी! आप हमारे हृदय में बसकर काम और मद का नाश कर दीजिए॥4॥
दोहा :
* परमानंद कृपायतन
मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥34॥
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥34॥
भावार्थ:-आप परमानंद स्वरूप, कृपा के धाम और
मन की कामनाओं को परिपूर्ण करने वाले हैं। हे श्री रामजी! हमको अपनी अविचल
प्रेमाभक्ति दीजिए॥34॥
चौपाई :
* देहु भगति रघुपति
अति पावनि। त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥1॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥1॥
भावार्थ:-हे रघुनाथजी! आप हमें अपनी अत्यंत पवित्र करने वाली
और तीनों प्रकार के तापों और जन्म-मरण के क्लेशों का नाश करने वाली भक्ति दीजिए।
हे शरणागतों की कामना पूर्ण करने के लिए कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो! प्रसन्न
होकर हमें यही वर दीजिए॥1॥
* भव बारिधि कुंभज
रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय॥2॥
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय॥2॥
भावार्थ:-हे रघुनाथजी! आप जन्म-मृत्यु रूप समुद्र को सोखने के
लिए अगस्त्य मुनि के समान हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देने
वाले हैं। हे दीनबंधो! मन से उत्पन्न दारुण दुःखों का नाश कीजिए और (हम में)
समदृष्टि का विस्तार कीजिए॥2॥
* आस त्रास इरिषाद
निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
भूप मौलि मनि मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥3॥
भूप मौलि मनि मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥3॥
भावार्थ:-आप (विषयों की) आशा, भय और ईर्षा आदि
के निवारण करने वाले हैं तथा विनय, विवेक और वैराग्य
के विस्तार करने वाले हैं। हे राजाओं के शिरोमणि एवं पृथ्वी के भूषण श्री रामजी! संसृति
(जन्म-मृत्यु के प्रवाह) रूपी नदी के लिए नौका रूप अपनी भक्ति प्रदान कीजिए॥3॥
* मुनि मन मानस हंस
निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥4॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥4॥
भावार्थ:-हे मुनियों के मन रूपी मानसरोवर में निरंतर निवास
करने वाले हंस! आपके चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वंदित हैं। आप रघुकुल के
केतु, वेदमर्यादा के रक्षक और काल, कर्म, स्वभाव तथा गुण
(रूप बंधनों) के भक्षक (नाशक) हैं॥4॥
* तारन तरन हरन सब
दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥5॥
भावार्थ:-आप तरन-तारन (स्वयं तरे हुए और दूसरों को तारने वाले)
तथा सब दोषों को हरने वाले हैं। तीनों लोकों के विभूषण आप ही तुलसीदास के स्वामी
हैं॥5॥
दोहा :
* बार-बार अस्तुति
करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥35॥
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥35॥
भावार्थ:-प्रेम सहित बार-बार स्तुति करके और सिर नवाकर तथा
अपना अत्यंत मनचाहा वर पाकर सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को गए॥35॥
चौपाई :
* सनकादिक बिधि लोक
सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिर नाए॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥1॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥1॥
भावार्थ:-सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। तब भाइयों ने श्री
रामजी के चरणों में सिर नवाया। सब भाई प्रभु से पूछते सकुचाते हैं। (इसलिए) सब
हनुमान्जी की ओर देख रहे हैं॥1॥
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