श्री सीताहरण और श्री सीता विलाप
* सून बीच दसकंधर
देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
भावार्थ : रावण सूना मौका
देखकर यति (संन्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को
नींद नहीं आती और दिन में (भरपेट) अन्न नहीं खाते-॥4॥
* सो दससीस स्वान
की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
भावार्थ : वही दस सिर वाला
रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई
* (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥
* सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।
* (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥
* सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।
* नाना बिधि करि
कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
भावार्थ : रावण ने अनेकों
प्रकार की सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया।
सीताजी ने कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट
की तरह वचन कहे॥6।
* तब रावन निज रूप
देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥
भावार्थ : तब रावण ने अपना
असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं। उन्होंने गहरा धीरज
धरकर कहा- 'अरे दुष्ट! खड़ा तो रह, प्रभु आ गए'॥7॥
* जिमि हरिबधुहि
छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥
भावार्थ : जैसे सिंह की
स्त्री को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे
राक्षसराज! तू (मेरी चाह करके) काल के वश हुआ है। ये वचन सुनते ही रावण को क्रोध आ
गया, परन्तु मन में उसने सीताजी के चरणों की वंदना करके
सुख माना॥8॥
दोहा :
* क्रोधवंत तब रावन
लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
भावार्थ : फिर क्रोध में
भरकर रावण ने सीताजी को रथ पर बैठा लिया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाश मार्ग से
चला, किन्तु डर के मारे उससे रथ हाँका नहीं जाता था॥28॥
चौपाई :
* हा जग एक बीर
रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
भावार्थ : (सीताजी विलाप कर रही थीं-) हा जगत के अद्वितीय वीर श्री
रघुनाथजी! आपने किस अपराध से मुझ पर दया भुला दी। हे दुःखों के हरने वाले, हे शरणागत को सुख देने वाले, हा रघुकुल रूपी
कमल के सूर्य!॥1॥
* हा लछिमन तुम्हार
नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
भावार्थ : हा लक्ष्मण!
तुम्हारा दोष नहीं है। मैंने क्रोध किया, उसका फल पाया।
श्री जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं- (हाय!) प्रभु की कृपा तो बहुत है, परन्तु वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गए हैं॥2॥
* बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
भावार्थ : प्रभु को मेरी यह
विपत्ति कौन सुनावे? यज्ञ के अन्न को गदहा खाना चाहता है। सीताजी का भारी
विलाप सुनकर जड़-चेतन सभी जीव दुःखी हो गए॥3॥
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