निषाद की शंका और सावधानी

निषाद की शंका और सावधानी
चौपाई :
सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1
भावार्थ:-रात भर सई नदी के तीर पर निवास करके सबेरे वहाँ से चल दिए और सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब समाचार सुनेतो वह दुःखी होकर हृदय में विचार करने लगा-॥1
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥2
भावार्थ:-क्या कारण है जो भरत वन को जा रहे हैंमन में कुछ कपट भाव अवश्य है। यदि मन में कुटिलता न होतीतो साथ में सेना क्यों ले चले हैं॥2
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥3
भावार्थ:-समझते हैं कि छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री राम को मारकर सुख से निष्कण्टक राज्य करूँगा। भरत ने हृदय में राजनीति को स्थान नहीं दिया। तब (पहले) तो कलंक ही लगा थाअब तो जीवन से ही हाथ धोना पड़ेगा॥3
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥4
भावार्थ:-सम्पूर्ण देवता और दैत्य वीर जुट जाएँतो भी श्री रामजी को रण में जीतने वाला कोई नहीं है। भरत जो ऐसा कर रहे हैंइसमें आश्चर्य ही क्या हैविष की बेलें अमृतफल कभी नहीं फलतीं!॥4
दोहा :
अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189
भावार्थ:-ऐसा विचारकर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति वालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ। नावों को हाथ में कर लो और फिर उन्हें डुबा दो तथा सब घाटों को रोक दो॥189
चौपाई :
होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥1
भावार्थ:-सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साज सजा लो। मैं भरत से सामने लोहा लूँगा (मुठभेड़ करूँगा) और जीते जी उन्हें गंगा पार न उतरने दूँगा॥1
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥2
भावार्थ:-युद्ध में मरणफिर गंगाजी का तटश्री रामजी का काम और क्षणभंगुर शरीर (जो चाहे जब नाश हो जाए)भरत श्री रामजी के भाई और राजा और मैं नीच सेवक- बड़े भाग्य से ऐसी मृत्यु मिलती है॥2
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥3
भावार्थ:-मैं स्वामी के काम के लिए रण में लड़ाई करूँगा और चौदहों लोकों को अपने यश से उज्ज्वल कर दूँगा। श्री रघुनाथजी के निमित्त प्राण त्याग दूँगा। मेरे तो दोनों ही हाथों में आनंद के लड्डू हैं ॥3
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥4
भावार्थ:-साधुओं के समाज में जिसकी गिनती नहीं और श्री रामजी के भक्तों में जिसका स्थान नहींवह जगत में पृथ्वी का भार होकर व्यर्थ ही जीता है। वह माता के यौवन रूपी वृक्ष के काटने के लिए कुल्हाड़ा मात्र है॥4
दोहा :
बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190
भावार्थ:-निषादराज विषाद से रहित हो गया और सबका उत्साह बढ़ाकर तथा श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके उसने तुरंत ही तरकसधनुष और कवच माँगा॥190
चौपाई :
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥1
भावार्थ:-(उसने कहा-) हे भाइयों! जल्दी करो और सब सामान सजाओ। मेरी आज्ञा सुनकर कोई मन में कायरता न लावे। सब हर्ष के साथ बोल उठे- हे नाथ! बहुत अच्छा और आपस में एक-दूसरे का जोश बढ़ाने लगे॥1
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं॥2
भावार्थ:-निषादराज को जोहार कर-करके सब निषाद चले। सभी बड़े शूरवीर हैं और संग्राम में लड़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों की जूतियों का स्मरण करके उन्होंने भाथियाँ बाँधकर धनुहियों पर प्रत्यंचा चढ़ाई॥2
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँड़े॥3
भावार्थ:-कवच पहनकर सिर पर लोहे का टोप रखते हैं और फरसेभाले तथा बरछों को सीधा कर रहे हैं (सुधार रहे हैं)। कोई तलवार के वार रोकने में अत्यन्त ही कुशल है। वे ऐसे उमंग में भरे हैंमानो धरती छोड़कर आकाश में कूद (उछल) रहे हों॥3
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई॥
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥4
भावार्थ:-अपना-अपना साज-समाज बनाकर उन्होंने जाकर निषादराज गुह को जोहार की। निषादराज ने सुंदर योद्धाओं को देखकरसबको सुयोग्य जाना और नाम ले-लेकर सबका सम्मान किया॥4
दोहा :
भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि॥191
भावार्थ:-(उसने कहा-) हे भाइयों! धोखा न लानाआज मेरा बड़ा भारी काम है। यह सुनकर सब योद्धा बड़े जोश के साथ बोल उठे- हे वीर! अधीर मत हो॥191
चौपाई :
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥1
भावार्थ:-हे नाथ! श्री रामचन्द्रजी के प्रताप से और आपके बल से हम लोग भरत की सेना को बिना वीर और बिना घोड़े की कर देंगे। जीते जी पीछे पाँव न रखेंगे। पृथ्वी को रुण्ड-मुण्डमयी कर देंगे॥1
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥2
भावार्थ:-निषादराज ने वीरों का बढ़िया दल देखकर कहा- जुझारू (लड़ाई का) ढोल बजाओ। इतना कहते ही बाईं ओर छींक हुई। शकुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुंदर हैं (जीत होगी)॥2
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥3
भावार्थ:-एक बूढ़े ने शकुन विचारकर कहा- भरत से मिल लीजिएउनसे लड़ाई नहीं होगी। भरत श्री रामचन्द्रजी को मनाने जा रहे हैं। शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है॥3
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें॥4
भावार्थ:-यह सुनकर निषादराज गुहने कहा- बूढ़ा ठीक कह रहा है। जल्दी में कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं। भरतजी का शील स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करने में हित की बहुत बड़ी हानि है॥4
दोहा :
गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥192
भावार्थ:-अतएव हे वीरों! तुम लोग इकट्ठे होकर सब घाटों को रोक लोमैं जाकर भरतजी से मिलकर उनका भेद लेता हूँ। उनका भाव मित्र का है या शत्रु का या उदासीन कायह जानकर तब आकर वैसा प्रबंध करूँगा॥192
चौपाई :
लखब सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ॥
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥1
भावार्थ:-उनके सुंदर स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूँगा। वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह भेंट का सामान सजाने लगा। उसने कंदमूलफलपक्षी और हिरन मँगवाए॥1
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए॥2
भावार्थ:-कहार लोग पुरानी और मोटी पहिना नामक मछलियों के भार भर-भरकर लाए। भेंट का सामान सजाकर मिलने के लिए चले तो मंगलदायक शुभ-शकुन मिले॥2
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥3
भावार्थ:-निषादराज ने मुनिराज वशिष्ठजी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर ही से दण्डवत प्रणाम किया। मुनीश्वर वशिष्ठजी ने उसको राम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरतजी को समझाकर कहा ॥3
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उचरि उमगत अनुरागा॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई॥4
भावार्थ:-यह श्री राम का मित्र हैइतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया। वे रथ से उतरकर प्रेम में उमँगते हुए चले। निषादराज गुह ने अपना गाँवजाति और नाम सुनाकर पृथ्वी पर माथा टेककर जोहार की॥4

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