श्री लक्ष्मण-सुमित्रा संवाद
श्री
लक्ष्मण-सुमित्रा संवाद
* हरषित हृदयँ मातु
पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए॥
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥2॥
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥2॥
भावार्थ:-वे हर्षित हृदय से माता सुमित्राजी के पास आए, मानो अंधा फिर से नेत्र पा गया हो। उन्होंने जाकर माता के
चरणों में मस्तक नवाया, किन्तु उनका मन रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामजी
और जानकीजी के साथ था॥2॥
* पूँछे मातु मलिन
मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी।
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥3॥
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥3॥
भावार्थ:-माता ने उदास मन देखकर उनसे पूछा। लक्ष्मणजी
ने सब कथा विस्तार से कह सुनाई। सुमित्राजी कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गईं जैसे
हिरनी चारों ओर वन में आग लगी देखकर सहम जाती है॥3॥
* लखन लखेउ भा अनरथ
आजू। एहिं सनेह सब करब अकाजू॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥4॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मण ने देखा कि आज अनर्थ हुआ। ये स्नेह वश
काम बिगाड़ देंगी! इसलिए वे विदा माँगते हुए डर के मारे सकुचाते हैं कि हे विधाता! माता साथ जाने को कहेंगी या नहीं॥4॥
दोहा :
* समुझि सुमित्राँ
राम सिय रूपु सुसीलु सुभाउ।
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥73॥
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥73॥
भावार्थ:-सुमित्राजी ने श्री रामजी और श्री सीताजी के रूप, सुंदर शील और स्वभाव को समझकर और उन पर राजा का प्रेम देखकर
अपना सिर धुना (पीटा) और कहा कि पापिनी कैकेयी ने बुरी तरह घात लगाया॥73॥
चौपाई :
* धीरजु धरेउ
कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥
भावार्थ:-परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही
हित चाहने वाली सुमित्राजी कोमल वाणी से बोलीं- हे तात! जानकीजी तुम्हारी माता हैं
और सब प्रकार से स्नेह करने वाले श्री रामचन्द्रजी तुम्हारे पिता हैं!॥1॥
* अवध तहाँ जहँ राम
निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥2॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥2॥
भावार्थ:-जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ
सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं, तो अयोध्या में
तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है॥2॥
* गुर पितु मातु
बंधु सुर साईं। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं॥
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥3॥
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥3॥
भावार्थ:-गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी, इन सबकी सेवा
प्राण के समान करनी चाहिए। फिर श्री रामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थरहित सखा हैं॥3॥
* पूजनीय प्रिय परम
जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥
अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥4॥
अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥4॥
भावार्थ:-जगत में जहाँ तक पूजनीय और परम प्रिय लोग हैं, वे सब रामजी के नाते से ही मानने
योग्य हैं। हृदय में ऐसा जानकर, हे तात! उनके साथ
वन जाओ और जगत में जीने का लाभ उठाओ!॥4॥
दोहा :
* भूरि भाग भाजनु
भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।
जौं तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥74॥
जौं तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥74॥
भावार्थ:-मैं बलिहारी जाती हूँ, (हे पुत्र!) मेरे
समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे
चित्त ने छल छोड़कर श्री राम के चरणों में स्थान प्राप्त किया है॥74॥
चौपाई :
* पुत्रवती जुबती
जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥1॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥1॥
भावार्थ:-संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है, जिसका पुत्र श्री रघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से
विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बाँझ ही
अच्छी। पशु की भाँति उसका ब्याना व्यर्थ ही है॥1॥
* तुम्हरेहिं भाग
रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥2॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥2॥
भावार्थ:-तुम्हारे ही भाग्य से श्री रामजी वन को जा रहे हैं।
हे तात! दूसरा कोई कारण नहीं है। सम्पूर्ण पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि श्री
सीतारामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम हो॥2॥
* रागु रोषु इरिषा
मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥3॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥3॥
भावार्थ:-राग, रोष, ईर्षा, मद और मोह- इनके
वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्री सीतारामजी की सेवा करना॥3॥
* तुम्ह कहुँ बन सब
भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥4॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥4॥
भावार्थ:-तुमको वन में सब प्रकार से आराम है, जिसके साथ श्री रामजी और सीताजी रूप पिता-माता हैं। हे
पुत्र! तुम वही करना जिससे श्री रामचन्द्रजी वन में क्लेश न पावें, मेरा यही उपदेश है॥4॥
छन्द :
* उपदेसु यहु जेहिं
तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥
भावार्थ:-हे तात! मेरा यही उपदेश है, जिससे वन में तुम्हारे कारण श्री रामजी और सीताजी सुख पावें
और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा
नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदासजी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार
हमारे प्रभु को शिक्षा देकर आज्ञा दी और फिर यह
आशीर्वाद दिया कि श्री सीताजी और श्री रघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल
(निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!
सोरठा :
* मातु चरन सिरु
नाइ चले तुरत संकित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
भावार्थ:-माता के चरणों में सिर नवाकर, हृदय में डरते हुए लक्ष्मणजी
तुरंत इस तरह चल दिए जैसे सौभाग्यवश कोई हिरन कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला हो॥75॥
चौपाई :
* गए लखनु जहँ
जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥
बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥1॥
बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥1॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी वहाँ गए जहाँ श्री जानकीनाथजी थे और प्रिय
का साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए। श्री रामजी और सीताजी के सुंदर चरणों की
वंदना करके वे उनके साथ चले और राजभवन में आए॥1॥
* कहहिं परसपर पुर
नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥
तन कृस मन दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥2॥
तन कृस मन दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥2॥
भावार्थ:-नगर के स्त्री-पुरुष आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने
खूब बनाकर बात बिगाड़ी! उनके शरीर दुबले, मन दुःखी और मुख
उदास हो रहे हैं। वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे शहद छीन लिए
जाने पर शहद की मक्खियाँ व्याकुल हों॥2॥
* कर मीजहिं सिरु
धुनि पछिताहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥3॥
भावार्थ:-सब हाथ मल रहे हैं और सिर धुनकर पछता रहे हैं। मानो बिना पंख के पक्षी
व्याकुल हो रहे हों। राजद्वार पर बड़ी भीड़ हो रही है। अपार विषाद का वर्णन नहीं
किया जा सकता॥3॥भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥3॥
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