सती का भ्रम, श्री रामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद
सती का भ्रम, श्री रामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद
* रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी की
कथा चंद्रमा की किरणों के समान है, जिसे संत रूपी
चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही संदेह पार्वतीजी ने किया था, तब महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था॥4॥
दोहा :
* कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
भावार्थ:-अब मैं अपनी
बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतु से
हुआ, उसे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद
मिट जाएगा॥47॥
चौपाई :
* एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
भावार्थ:-एक बार त्रेता
युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि
ने संपूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया॥1॥
* रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥
भावार्थ:-मुनिवर अगस्त्यजी
ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने
शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति
का निरूपण किया॥2॥
* कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे
गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के
गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर
शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले॥3॥
* तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
भावार्थ:-उन्हीं दिनों
पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी
भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में
दण्डकवन में विचर रहे थे॥4॥
दोहा :
* हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥
भावार्थ:-शिवजी हृदय में
विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप
से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे॥ 48 (क)॥
सोरठा :
* संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
भावार्थ:-श्री शंकरजी के
हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस
भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में (भेद खुलने का) डर
था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे॥48 (ख)॥
चौपाई :
* रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह
साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
भावार्थ:-रावण ने
(ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को
प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस
प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी
युक्ति ठीक नहीं बैठती थी॥1॥
* ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार
महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह
(मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया॥2॥
* करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न
तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
भावार्थ:-मूर्ख (रावण) ने
छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता
न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर
(अर्थात् वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आए॥3॥
* बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर
रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष
विरह का दुःख देखा गया॥4॥
दोहा :
* अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी का
चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि
हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ
दूसरी ही बात समझ बैठते हैं॥49॥
चौपाई :
* संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा
॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
भावार्थ:-श्री शिवजी ने
उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन
शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया॥1॥
* जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
भावार्थ:-जगत् को पवित्र
करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर
कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से
पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे॥2॥
* सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
भावार्थ:-सतीजी ने शंकरजी
की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन कहने लगीं
कि) शंकरजी की सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के
ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥3॥
* तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने एक
राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने
प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती॥4॥
दोहा :
* ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
भावार्थ:-जो ब्रह्म
सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और
भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण
करके मनुष्य हो सकता है?॥50॥
चौपाई :
* बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा
त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
भावार्थ:-देवताओं के हित
के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी
की तरह स्त्री को खोजेंगे?॥1॥
* संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
भावार्थ:-फिर शिवजी के वचन
भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस
प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके
हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था॥2॥
* जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
भावार्थ:-यद्यपि भवानीजी
ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती!
सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न
रखना चाहिए॥3॥
* जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि
सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
भावार्थ:-जिनकी कथा का अगस्त्य
ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥4॥
छंद :
* मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
भावार्थ:-ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं
तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं
सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम
स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान् श्री रामजी ने अपने भक्तों के
हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।
सोरठा :
* लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
भावार्थ:-यद्यपि शिवजी ने
बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब
महादेवजी मन में भगवान् की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-॥51॥
चौपाई :
* जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
भावार्थ:-जो तुम्हारे मन
में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में
बैठा हूँ॥1॥
* जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक
बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
भावार्थ:-जिस प्रकार
तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक
के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने
लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?॥2॥
* इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं
कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
भावार्थ:-इधर शिवजी ने मन
में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी
संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है॥3॥
* होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
भावार्थ:-जो कुछ राम ने रच
रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन
में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥4॥
दोहा :
* पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
भावार्थ:-सती बार-बार मन
में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी
आ रहे थे॥52॥
चौपाई :
* लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
भावार्थ:-सतीजी के बनावटी
वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत
गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी
के प्रभाव को जानते थे॥1॥
* सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
भावार्थ:-सब कुछ देखने
वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी सती के कपट को
जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्री रामचंद्रजी हैं॥2॥
* सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-स्त्री स्वभाव का
असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती
हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी
हँसकर कोमल वाणी से बोले॥3॥
* जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज
नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
भावार्थ:-पहले प्रभु ने
हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु
शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?॥4॥
दोहा :
* राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप)
शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई॥53॥
चौपाई :
* मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
भावार्थ:-कि मैंने शंकरजी
का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं
शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक
जलन पैदा हो गई॥1॥
* जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि
जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना
कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा
कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर
सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।)॥2॥
* फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर
बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
भावार्थ:-(तब उन्होंने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री
रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर
सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥3॥
* देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
भावार्थ:-सतीजी ने अनेक
शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि)
भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर
रहे हैं॥4॥
दोहा :
* सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
भावार्थ:-उन्होंने अनगिनत
अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा
आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी
थीं॥54॥
चौपाई :
* देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर
तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
भावार्थ:-सतीजी ने
जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित
वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे॥1॥
* पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं
देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
भावार्थ:-(उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री
रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री
रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे॥2॥
* सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
भावार्थ:-(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और
वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी
सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं॥3॥
* बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
भावार्थ:-फिर आँख खोलकर
देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब
वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे॥4॥
दोहा :
* गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
भावार्थ:-जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने
रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच
कहो॥55॥
मास पारायण, दूसरा विश्राम
मास पारायण, दूसरा विश्राम
चौपाई :
* सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
भावार्थ:-सतीजी ने श्री
रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्!
मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी
ही तरह प्रणाम किया॥1॥
* जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति
सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
भावार्थ:-आपने जो कहा वह
झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने
ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥2॥
* बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ
कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
भावार्थ:-फिर श्री
रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा
करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि
की इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥3॥
* सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
भावार्थ:-सतीजी ने सीताजी
का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने
सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और
बड़ा अन्याय होता है॥4॥
शिवजी द्वारा सती
का त्याग, शिवजी की समाधि
दोहा :
* परम पुनीत न जाइ
तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥
भावार्थ:-सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें
छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी
नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है॥56॥
चौपाई :
*तब संकर प्रभु पद
सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में
सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर
से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प
कर लिया॥1॥
* अस बिचारि संकरु
मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥2॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥2॥
भावार्थ:-स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का
स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश !
आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की॥2॥
* अस पन तुम्ह बिनु
करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥
भावार्थ:-आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप
श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और
भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने
सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-॥3॥
*कीन्ह कवन पन
कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥
भावार्थ:-हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी
प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि
सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु
त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥4॥
दोहा :
* सतीं हृदयँ
अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥
भावार्थ:-सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब
जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से
ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥57 (क)॥
सोरठा :
* जलु पय सरिस
बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥
भावार्थ:-प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ
मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट
रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता
रहता है॥57 (ख)॥
चौ.
* हृदयँ सोचु समुझत
निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥
भावार्थ:-अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है
और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होंने समझ लिया कि)
शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा॥1॥
* संकर रुख अवलोकि
भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥
भावार्थ:-शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने
मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं
बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान
अत्यन्त जलने लगा॥2॥
* सतिहि ससोच जानि
बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥
भावार्थ:-वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें
सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों
को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥
* तहँ पुनि संभु
समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥
भावार्थ:-वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के
पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी
अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥
दोहा :
*सती बसहिं कैलास
तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥
भावार्थ:-तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख
था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा
था॥58॥
चौपाई :
* नित नव सोचु सती
उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥
भावार्थ:-सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था
कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और
फिर पति के वचनों को झूठ जाना-॥1॥
* सो फलु मोहि
बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥
भावार्थ:-उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया, परन्तु हे
विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख
होने पर भी मुझे जिला रहा है॥2॥
* कहि न जाइ कछु
हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥
भावार्थ:-सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती।
बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि
आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले
हैं, ॥3॥
* तौ मैं बिनय करउँ
कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥
भावार्थ:-तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह
जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत
मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है,॥4॥
दोहा :
* तौ सबदरसी सुनिअ
प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥
भावार्थ:-तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्याग
रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए॥59॥
चौपाई :
* एहि बिधि दुखित
प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥
बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥
भावार्थ:-दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥1॥
*राम नाम सिव
सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥
भावार्थ:-शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे।
उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने
आसन दिया॥2॥
* लगे कहन हरि कथा
रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥
भावार्थ:-शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय
दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को
प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥
* बड़ अधिकार दच्छ
जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥
भावार्थ:-जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई
नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो॥4॥
सोरठा :
* संकर उर अति छोभु
सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
भावार्थ:-श्री शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली
उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी
कहते हैं कि शिवजी के मन में (भेद खुलने का) डर था, परन्तु दर्शन के
लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे॥48 (ख)॥
चौपाई :
* रावन मरन मनुज कर
जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
भावार्थ:-रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से
माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता
हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी॥1॥
* ऐहि बिधि भए
सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच
रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह (मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया॥2॥
* करि छलु मूढ़ हरी
बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
भावार्थ:-मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री
रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित
श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर (अर्थात् वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके
नेत्रों में आँसू भर आए॥3॥
* बिरह बिकल नर इव
रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं
और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग
नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया॥4॥
दोहा :
* अति बिचित्र
रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही
बात समझ बैठते हैं॥49॥
चौपाई :
* संभु समय तेहि
रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
भावार्थ:-श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और
उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्रजी)
को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक
न जानकर परिचय नहीं किया॥1॥
* जय सच्चिदानंद जग
पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
भावार्थ:-जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल
पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे
थे॥2॥
* सतीं सो दसा संभु
कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
भावार्थ:-सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा
संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन कहने लगीं कि) शंकरजी की सारा जगत् वंदना
करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति
सिर नवाते हैं॥3॥
* तिन्ह नृपसुतहि
कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर
प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में
प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती॥4॥
दोहा :
* ब्रह्म जो ब्यापक
बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
भावार्थ:-जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥50॥
चौपाई :
* बिष्नु जो सुर
हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
भावार्थ:-देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो
विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के
भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या
अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?॥1॥
* संभुगिरा पुनि
मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
भावार्थ:-फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते
हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता
था॥2॥
* जद्यपि प्रगट न
कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
भावार्थ:-यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना
चाहिए॥3॥
* जासु कथा कुंभज
रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
भावार्थ:-जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति
मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥4॥
छंद :
* मुनि धीर जोगी
सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
भावार्थ:-ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध
निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं
सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम
स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान् श्री रामजी ने अपने भक्तों के
हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।
सोरठा :
* लाग न उर उपदेसु
जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
भावार्थ:-यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब
महादेवजी मन में भगवान् की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-॥51॥
चौपाई :
* जौं तुम्हरें मन
अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
भावार्थ:-जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर
परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की
छाँह में बैठा हूँ॥1॥
* जैसें जाइ मोह
भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
भावार्थ:-जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी
की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा
लूँ)?॥2॥
* इहाँ संभु अस मन
अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
भावार्थ:-इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या
सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता
है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है॥3॥
* होइहि सोइ जो राम
रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
भावार्थ:-जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में)
ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥4॥
दोहा :
* पुनि पुनि हृदयँ
बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
भावार्थ:-सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके
उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के
विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी आ रहे थे॥52॥
चौपाई :
* लछिमन दीख उमाकृत
बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
भावार्थ:-सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए
और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के
प्रभाव को जानते थे॥1॥
* सती कपटु जानेउ
सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
भावार्थ:-सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले
देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्री रामचंद्रजी हैं॥2॥
* सती कीन्ह चह
तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ
भगवान् के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में
बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले॥3॥
* जोरि पानि प्रभु
कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
भावार्थ:-पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता
सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?॥4॥
दोहा :
* राम बचन मृदु
गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर
सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई॥53॥
चौपाई :
* मैं संकर कर कहा
न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
भावार्थ:-कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का
श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा
हो गई॥1॥
* जाना राम सतीं
दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया।
सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और
लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी
श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की
कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।)॥2॥
* फिरि चितवा पाछें
प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
भावार्थ:-(तब उन्होंने)
पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री
रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर
सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥3॥
* देखे सिव बिधि
बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
भावार्थ:-सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और
विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने
देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और
सेवा कर रहे हैं॥4॥
दोहा :
* सती बिधात्री
इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
भावार्थ:-उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि
देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी
थीं॥54॥
चौपाई :
* देखे जहँ जहँ
रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
भावार्थ:-सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार
में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे॥1॥
* पूजहिं प्रभुहि
देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
भावार्थ:-(उन्होंने देखा
कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता
सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष
अनेक नहीं थे॥2॥
* सोइ रघुबर सोइ
लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
भावार्थ:-(सब जगह) वही
रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर
गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग
में बैठ गईं॥3॥
* बहुरि बिलोकेउ
नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
भावार्थ:-फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ
दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के
चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी
थे॥4॥
दोहा :
* गईं समीप महेस तब
हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
भावार्थ:-जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने
हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥55॥
मास पारायण, दूसरा विश्राम
मास पारायण, दूसरा विश्राम
चौपाई :
* सतीं समुझि
रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
भावार्थ:-सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के
मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया॥1॥
* जो तुम्ह कहा सो
मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
भावार्थ:-आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान
करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥2॥
* बहुरि राममायहि
सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
भावार्थ:-फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान
शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥3॥
* सतीं कीन्ह सीता
कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
भावार्थ:-सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा
कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा
अन्याय होता है॥4॥
मास पारायण, दूसरा विश्राम
चौपाई :
* सतीं समुझि
रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
भावार्थ:-सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के
मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया॥1॥
* जो तुम्ह कहा सो
मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
भावार्थ:-आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान
करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥2॥
* बहुरि राममायहि
सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
भावार्थ:-फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान
शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥3॥
* सतीं कीन्ह सीता
कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
भावार्थ:-सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने
सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और
बड़ा अन्याय होता है॥4॥जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
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