राम राज्याभिषेक की तैयारी, देवताओं की व्याकुलता तथा सरस्वती से उनकी प्रार्थना

राम राज्याभिषेक की तैयारीदेवताओं की व्याकुलता तथा सरस्वती से उनकी प्रार्थना
दोहा :
सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1
भावार्थ:-सबके हृदय में ऐसी अभिलाषा है और सब महादेवजी को मनाकर कहते हैं कि राजा अपने जीते जी श्री रामचन्द्रजी को युवराज पद दे दें॥1
चौपाई :
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥1
भावार्थ:-एक समय रघुकुल के राजा दशरथजी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैंउन्हें श्री रामचन्द्रजी का सुंदर यश सुनकर अत्यन्त आनंद हो रहा है॥1
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥वन तीनि काल जग माहीं। भूरिभाग दसरथ सम नाहीं॥2
भावार्थ:-सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुख को रखते हुए प्रीति करते हैं। तीनों भुवनों में और तीनों कालों में दशरथजी के समान बड़भागी कोई नहीं है॥2
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिअ थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा॥3
भावार्थ:-मंगलों के मूल श्री रामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैंउनके लिए जो कुछ कहा जाए सब थोड़ा है। राजा ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुँह देखकर मुकुट को सीधा किया॥3
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥4
भावार्थ:-कानों के पास बाल सफेद हो गए हैंमानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन्‌! श्री रामचन्द्रजी को युवराज पद देकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते॥4
दोहा :
यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2
भावार्थ:-हृदय में यह विचार लाकर (युवराज पद देने का निश्चय कर) राजा दशरथजी ने शुभ दिन और सुंदर समय पाकरप्रेम से पुलकित शरीर हो आनंदमग्न मन से उसे गुरु वशिष्ठजी को जा सुनाया॥2
चौपाई :
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमार अरि मित्र उदासी॥1
भावार्थ:-राजा ने कहा- हे मुनिराज! सुनिए। श्री रामचन्द्रजी अब सब प्रकार से सब योग्य हो गए हैं। सेवकमंत्रीसब नगर निवासी और जो हमारे शत्रुमित्र या उदासीन हैं-॥1
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं॥2
भावार्थ:-सभी को श्री रामचन्द्र वैसे ही प्रिय हैंजैसे वे मुझको हैं। आपका आशीर्वाद ही मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे स्वामी! सारे ब्राह्मणपरिवार सहित आपके ही समान उन पर स्नेह करते हैं॥2
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3
भावार्थ:-जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैंवे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥3
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥4
भावार्थ:-अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है। हे नाथ! वह भी आप ही के अनुग्रह से पूरी होगी। राजा का सहज प्रेम देखकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा- नरेश! आज्ञा दीजिए4
दोहा :
राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3
भावार्थ:-हे राजन! आपका नाम और यश ही सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओं को देने वाला है। हे राजाओं के मुकुटमणि! आपके मन की अभिलाषा फल का अनुगमन करती है (अर्थात आपके इच्छा करने के पहले ही फल उत्पन्न हो जाता है)॥3
चौपाई :
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥1
भावार्थ:-अपने जी में गुरुजी को सब प्रकार से प्रसन्न जानकरहर्षित होकर राजा कोमल वाणी से बोले- हे नाथ! श्री रामचन्द्र को युवराज कीजिए। कृपा करके कहिए तो तैयारी की जाए॥1
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥2
भावार्थ:-मेरे जीते जी यह आनंद उत्सव हो जाए, सब लोग अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करें। प्रभु के प्रसाद से शिवजी ने सब कुछ निबाह दियाकेवल यही एक लालसा मन में रह गई है॥2
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥3
भावार्थ:- फिर सोच नहींशरीर रहे या चला जाएजिससे मुझे पीछे पछतावा न हो। दशरथजी के मंगल और आनंद के मूल सुंदर वचन सुनकर मुनि मन में बहुत प्रसन्न हुए॥3
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥4
भावार्थ:- हे राजन्‌! सुनिएजिनसे विमुख होकर लोग पछताते हैं और जिनके भजन बिना जी की जलन नहीं जातीवही स्वामी श्री रामजी आपके पुत्र हुए हैंजो पवित्र प्रेम के अनुगामी हैं। 4
दोहा :
बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4
भावार्थ:-हे राजन्‌! अब देर न कीजिएशीघ्र सब सामान सजाइए। शुभ दिन और सुंदर मंगल तभी हैजब श्री रामचन्द्रजी युवराज हो जाएँ ॥4
चौपाई :
मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥1
भावार्थ:-राजा आनंदित होकर महल में आए और उन्होंने सेवकों को तथा मंत्री सुमंत्र को बुलवाया। उन लोगों ने 'जय-जीवकहकर सिर नवाए। तब राजा ने सुंदर मंगलमय वचन (श्री रामजी को युवराज पद देने का प्रस्ताव) सुनाए॥1
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥2
भावार्थ:- यदि पंचों को यह मत अच्छा लगेतो हृदय में हर्षित होकर आप लोग श्री रामचन्द्र का राजतिलक कीजिए॥2
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
बिनती सचिव करहिं कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥3
भावार्थ:-इस प्रिय वाणी को सुनते ही मंत्री ऐसे आनंदित हुए मानो उनके मनोरथ रूपी पौधे पर पानी पड़ गया हो। मंत्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत्पति! आप करोड़ों वर्ष जिएँ॥3
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥4
भावार्थ:-आपने जगतभर का मंगल करने वाला भला काम सोचा है। हे नाथ! शीघ्रता कीजिएदेर न लगाइए। मंत्रियों की सुंदर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनंद हुआ मानो बढ़ती हुई बेल सुंदर डाली का सहारा पा गई हो॥4
दोहा :
कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5
भावार्थ:-राजा ने कहा- श्री रामचन्द्र के राज्याभिषेक के लिए मुनिराज वशिष्ठजी की जो-जो आज्ञा होआप लोग वही सब तुरंत करें॥5
चौपाई :
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥1
भावार्थ:-मुनिराज ने हर्षित होकर कोमल वाणी से कहा कि सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थों का जल ले आओ। फिर उन्होंने औषधिमूलफूलफल और पत्र आदि अनेकों मांगलिक वस्तुओं के नाम गिनकर बताए॥1
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥2
भावार्थ:-चँवरमृगचर्मबहुत प्रकार के वस्त्रअसंख्यों जातियों के ऊनी और रेशमी कपड़े, नाना प्रकार की मणियाँ (रत्न) तथा और भी बहुत सी मंगल वस्तुएँजो जगत में राज्याभिषेक के योग्य होती हैं 2
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥3
भावार्थ:-मुनि ने वेदों में कहा हुआ सब विधान बताकर कहा- नगर में बहुत से मंडप सजाओ। फलों समेत आमसुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारों ओर रोप दो॥3
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥4
भावार्थ:-सुंदर मणियों के मनोहर चौक पुरवाओ और बाजार को तुरंत सजाने के लिए कह दो। श्री गणेशजीगुरु और कुलदेवता की पूजा करो और भूदेव ब्राह्मणों की सब प्रकार से सेवा करो॥4
दोहा :
ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6
भावार्थ:-ध्वजापताकातोरणकलशघोड़ेरथ और हाथी सबको सजाओ! मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी के वचनों को शिरोधार्य करके सब लोग अपने-अपने काम में लग गए॥6
चौपाई :
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥1
भावार्थ:-मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिए आज्ञा दीउसने वह काम मानो पहले से ही कर रखा था। राजा ब्राह्मणसाधु और देवताओं को पूज रहे हैं और श्री रामचन्द्रजी के लिए सब मंगल कार्य कर रहे हैं॥1
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥2
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक की सुहावनी खबर सुनते ही अवधभर में बड़ी धूम से बधावे बजने लगे। श्री रामचन्द्रजी और सीताजी के शरीर में भी शुभ शकुन सूचित हुए। उनके सुंदर मंगल अंग फड़कने लगे॥2
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥3
भावार्थ:-पुलकित होकर वे दोनों प्रेम सहित एक-दूसरे से कहते हैं कि ये सब शकुन भरत के आने की सूचना देने वाले हैं। (उनको मामा के घर गए) बहुत दिन हो गएबहुत ही अवसेर आ रही है (बार-बार उनसे मिलने की मन में आती है) शकुनों से प्रिय (भरत) के मिलने का विश्वास होता है॥3
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ हृदय जेहि भाँती॥4
भावार्थ:-और भरत के समान जगत हमें कौन प्यारा है! शकुन का बसयही फल हैदूसरा नहीं। श्री रामचन्द्रजी को भाई भरत का दिन-रात ऐसा सोच रहता है जैसा कछुए का हृदय अंडों में रहता है॥4
दोहा :
एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7
भावार्थ:-इसी समय यह परम मंगल समाचार सुनकर सारा रानिनिवास हर्षित हो उठा। जैसे चन्द्रमा को बढ़ते देखकर समुद्र में लहरों का आनंद सुशोभित होता है॥7
चौपाई :
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥1
भावार्थ:-सबसे पहले रानिनिवास में जाकर जिन्होंने ये समाचार सुनाएउन्होंने बहुत से आभूषण और वस्त्र पाए। रानियों का शरीर प्रेम से पुलकित हो उठा और मन प्रेम में मग्न हो गया। वे सब मंगल कलश सजाने लगीं॥1
चौकें चारु सुमित्राँ पूरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रूरी॥
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥2
भावार्थ:-सुमित्राजी ने मणियों (रत्नों) के बहुत प्रकार के अत्यन्त सुंदर और मनोहर चौक पूरे। आनंद में मग्न हुई श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी ने ब्राह्मणों को बुलाकर बहुत दान दिए॥2
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥3
भावार्थ:-उन्होंने ग्रामदेवियोंदेवताओं और नागों की पूजा की और फिर बलि भेंट देने को कहा और प्रार्थना की कि जिस प्रकार से श्री रामचन्द्रजी का कल्याण होदया करके वही वरदान दीजिए॥3
*गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥4
भावार्थ:-कोयल की सी मीठी वाणी वालीचन्द्रमा के समान मुख वाली और हिरन के बच्चे के से नेत्रों वाली स्त्रियाँ मंगलगान करने लगीं॥4
दोहा :
राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का राज्याभिषेक सुनकर सभी स्त्री-पुरुष हृदय में हर्षित हो उठे और विधाता को अपने अनुकूल समझकर सब सुंदर मंगल साज सजाने लगे॥8
चौपाई :
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥1
भावार्थ:-तब राजा ने वशिष्ठजी को बुलाया और शिक्षा देने के लिए श्री रामचन्द्रजी के महल में भेजा। गुरु का आगमन सुनते ही श्री रघुनाथजी ने दरवाजे पर आकर उनके चरणों में मस्तक नवाया।1
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥2
भावार्थ:-आदरपूर्वक अर्घ्य देकर उन्हें घर में लाए और षोडशोपचार से पूजा करके उनका सम्मान किया। फिर सीताजी सहित उनके चरण स्पर्श किए और कमल के समान दोनों हाथों को जोड़कर श्री रामजी बोले-॥2
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥3
भावार्थ:-यद्यपि सेवक के घर स्वामी का पधारना मंगलों का मूल और अमंगलों का नाश करने वाला होता हैतथापि हे नाथ! उचित तो यही था कि प्रेमपूर्वक दास को ही कार्य के लिए बुला भेजतेऐसी ही नीति है॥3
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
आयसु होइ सो करौं गोसाईं। सेवकु लइह स्वामि सेवकाईं॥4
भावार्थ:-परन्तु प्रभु ने प्रभुता छोड़कर जो स्नेह कियाइससे आज यह घर पवित्र हो गया! हे गोसाईं!अब जो आज्ञा होमैं वही करूँ। स्वामी की सेवा में ही सेवक का लाभ है॥4
दोहा :
सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9
भावार्थ:- प्रेम में सने हुए वचनों को सुनकर मुनि वशिष्ठजी ने श्री रघुनाथजी की प्रशंसा करते हुए कहा कि हे राम! भला आप ऐसा क्यों न कहें। आप सूर्यवंश के भूषण जो हैं॥9
चौपाई :
बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥1
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के गुणशील और स्वभाव का बखान करमुनिराज प्रेम से पुलकित होकर बोले- राजा दशरथजीने राज्याभिषेक की तैयारी की है। वे आपको युवराज पद देना चाहते हैं॥1
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥2
भावार्थ:-हे रामजी! आज आप संयम कीजिएजिससे विधाता कुशलपूर्वक इस काम को निबाह दें। गुरुजी शिक्षा देकर राजा दशरथजी के पास चले गए। श्री रामचन्द्रजी के हृदय में इस बात का खेद हुआ कि-॥2
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥3
भावार्थ:-हम सब भाई एक ही साथ जन्मेखानासोनालड़कपन के खेल-कूदकनछेदनयज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ-साथ ही हुए॥3
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥4
भावार्थ:-पर इस निर्मल वंश में यही एक अनुचित बात हो रही है कि और सब भाइयों को छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही होता है।प्रभु श्री रामचन्द्रजी का यह सुंदर प्रेमपूर्ण पछतावा भक्तों के मन की कुटिलता को हरण करे॥4
दोहा :
*तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10
भावार्थ:-उसी समय प्रेम और आनंद में मग्न लक्ष्मणजी आए। रघुकुल रूपी कुमुद के खिलाने वाले चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया॥10
चौपाई :
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥1
भावार्थ:-बहुत प्रकार के बाजे बज रहे हैं। नगर के अतिशय आनंद का वर्णन नहीं हो सकता। सब लोग भरतजी का आगमन मना रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भी शीघ्र आवें और का फल प्राप्त करें॥1
हाट बाट घर गलीं अथाईं। कहहिं परसपर लोग लोगाईं॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥2
भावार्थ:-बाजाररास्तेघरगली और चबूतरों पर पुरुष और स्त्री आपस में यही कहते हैं कि कल वह शुभ लग्न कितने समय हैजब विधाता हमारी अभिलाषा पूरी करेंगे॥2
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥3
भावार्थ:-जब सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी सुवर्ण के सिंहासन पर विराजेंगे और हमारा मन आनंदित होगा । इधर तो सब यह कह रहे हैं कि कल कब होगाउधर कुचक्री देवता विघ्न मना रहे हैं॥3
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥4
भावार्थ:-उन्हें (देवताओं को) अवध के बधावे नहीं सुहातेजैसे चोर को चाँदनी रात नहीं भाती। सरस्वतीजी को बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार-बार उनके पैरों को पकड़कर उन पर गिरते हैं॥4
दोहा :
बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11
भावार्थ:- हे माता! हमारी बड़ी विपत्ति को देखकर आज वही कीजिए जिससे श्री रामचन्द्रजी राज्य त्यागकर वन को चले जाएँ और देवताओं का सब कार्य सिद्ध हो॥11
चौपाई :
सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥1
भावार्थ:-देवताओं की विनती सुनकर सरस्वतीजी खड़ी-खड़ी पछता रही हैं कि मैं कमलवन के लिए हेमंत ऋतु की रात हुई। उन्हें इस प्रकार पछताते देखकर देवता विनय करके कहने लगे- हे माता! इसमें आपको जरा भी दोष न लगेगा॥1
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥2
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी विषाद और हर्ष से रहित हैं। आप तो श्री रामजी के सब प्रभाव को जानती ही हैं। जीव अपने कर्मवश ही सुख-दुःख का भागी होता है। अतएव देवताओं के हित के लिए आप अयोध्या जाइए॥2
बार बार गहि चरन सँकोची। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥3
भावार्थ:-बार-बार चरण पकड़कर देवताओं ने सरस्वती को संकोच में डाल दिया। तब वे यह विचारकर चलीं कि देवताओं की बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो ऊँचा हैपर इनकी करनी नीची है। ये दूसरे का ऐश्वर्य नहीं देख सकते॥3
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करिहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥4
भावार्थ:-परन्तु आगे के काम का विचार करके (श्री रामजी के वन जाने से राक्षसों का वध होगाजिससे सारा जगत सुखी हो जाएगा) चतुर कवि (श्री रामजी के वनवास के चरित्रों का वर्णन करने के लिए) मेरी चाह (कामना) करेंगे। ऐसा विचार कर सरस्वती हृदय में हर्षित होकर दशरथजी की पुरी अयोध्या में आईंमानो दुःसह दुःख देने वाली कोई ग्रहदशा आई हो॥4

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