राम का दंडकवन प्रवेश, जटायु मिलन, पंचवटी निवास और श्री राम-लक्ष्मण संवाद
* है प्रभु परम
मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
भावार्थ : हे प्रभो! एक परम
मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी है। हे प्रभो! आप दण्डक वन को (जहाँ
पंचवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए॥8॥
* बास करहु तहँ
रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई॥9॥
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई॥9॥
भावार्थ : हे रघुकुल के
स्वामी! आप सब मुनियों पर दया करके वहीं निवास कीजिए। मुनि की आज्ञा पाकर श्री
रामचंद्रजी वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुँच गए॥9॥
दोहा :
* गीधराज सै भेंट
भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥13॥
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥13॥
भावार्थ : वहाँ गृध्रराज
जटायु से भेंट हुई। उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढ़ाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी
गोदावरीजी के समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे॥13॥
चौपाई :
* जब ते राम कीन्ह
तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥
भावार्थ : जब से श्री रामजी
ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता
रहा। पर्वत, वन, नदी और तालाब
शोभा से छा गए। वे दिनोंदिन अधिक सुहावने (मालूम) होने लगे॥1॥
* खग मृग बृंद
अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥2॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥2॥
भावार्थ : पक्षी और पशुओं
के समूह आनंदित रहते हैं और भौंरे मधुर गुंजार करते हुए शोभा पा रहे हैं। जहाँ
प्रत्यक्ष श्री रामजी विराजमान हैं, उस वन का वर्णन
सर्पराज शेषजी भी नहीं कर सकते॥2॥
* एक बार प्रभु सुख
आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
भावार्थ : एक बार प्रभु
श्री रामजी सुख से बैठे हुए थे। उस समय लक्ष्मणजी ने उनसे छलरहित (सरल) वचन कहे-
हे देवता, मनुष्य, मुनि और चराचर के
स्वामी! मैं अपने प्रभु की तरह (अपना स्वामी समझकर) आपसे पूछता हूँ॥3॥
* मोहि समुझाइ कहहु
सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
भावार्थ : हे देव! मुझे
समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ।
ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥4॥
दोहा :
* ईस्वर जीव भेद
प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥14॥
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥14॥
भावार्थ : हे प्रभो! ईश्वर
और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों
में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ॥14॥
चौपाई :
* थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥
भावार्थ : (श्री रामजी ने कहा-) हे तात! मैं थोड़े ही में सब समझाकर
कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो! मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने समस्त
जीवों को वश में कर रखा है॥1॥
* गो गोचर जहँ लगि
मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥
भावार्थ : इंद्रियों के
विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको
माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों
को तुम सुनो-॥2॥
* एक दुष्ट अतिसय
दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥3॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥3॥
भावार्थ : एक (अविद्या)
दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यंत दुःखरूप है, जिसके वश होकर
जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है और एक (विद्या) जिसके वश में गुण है और जो
जगत् की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है॥3॥
* ग्यान मान जहँ
एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥
भावार्थ : ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान
रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान् कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान
त्याग चुका हो॥4॥
दोहा :
* माया ईस न आपु
कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥15॥
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥15॥
भावार्थ : जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। जो (कर्मानुसार) बंधन और मोक्ष देने
वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है॥5॥
चौपाई :
* धर्म तें बिरति
जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥
भावार्थ : धर्म (के आचरण)
से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों
ने वर्णन किया है। और हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है॥1॥
* सो सुतंत्र अवलंब
न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥2॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥2॥
भावार्थ : वह भक्ति
स्वतंत्र है, उसको (ज्ञान-विज्ञान आदि किसी) दूसरे साधन का सहारा
(अपेक्षा) नहीं है। ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं। हे तात! भक्ति अनुपम एवं
सुख की मूल है और वह तभी मिलती है, जब संत अनुकूल
(प्रसन्न) होते हैं॥2॥
* भगति कि साधन
कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥3॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥3॥
भावार्थ : अब मैं भक्ति के
साधन विस्तार से कहता हूँ- यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको
सहज ही पा जाते हैं। पहले तो ब्राह्मणों के चरणों में अत्यंत प्रीति हो और वेद की
रीति के अनुसार अपने-अपने (वर्णाश्रम के) कर्मों में लगा रहे॥3॥
* एहि कर फल पुनि
बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥4॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥4॥
भावार्थ : इसका फल, फिर विषयों से वैराग्य होगा। तब (वैराग्य होने पर) मेरे
धर्म (भागवत धर्म) में प्रेम उत्पन्न होगा। तब श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्तियाँ
दृढ़ होंगी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यंत प्रेम होगा॥4
* संत चरन पंकज अति
प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥5॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥5॥
भावार्थ : जिसका संतों के
चरणकमलों में अत्यंत प्रेम हो, मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ़ हो,॥5॥
* मम गुन गावत पुलक
सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥6॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥6॥
भावार्थ : मेरा गुण गाते
समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए
और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा
उसके वश में रहता हूँ॥6॥
दोहा :
* बचन कर्म मन मोरि
गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥16॥
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥16॥
भावार्थ : जिनको कर्म, वचन और मन से मेरी ही गति है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन
करते हैं, उनके हृदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूँ॥16॥
चौपाई :
* भगति जोग सुनि
अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा॥
एहि बिधि कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥1॥
एहि बिधि कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥1॥
भावार्थ : इस भक्ति योग को
सुनकर लक्ष्मणजी ने अत्यंत सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों
में सिर नवाया। इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण और नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गए॥1॥
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