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बालकाण्ड सुँदर चौपाईयां

बालकाण्ड  * बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥ अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥ 1 ॥ भावार्थ:- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ , जो सुरुचि (सुंदर स्वाद) , सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है , जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥ 1 ॥   मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥ सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥ 1 ॥ भावार्थ:- इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे , क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥ 1 ॥ सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥ बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥ 5 ॥ भावार्थ:- दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं , जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है , किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं , तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। ॥ 5 ॥ बहुरि...